- 6 Posts
- 10 Comments
देश आज़ाद को आज़ादी मिली, लोगों की कुर्बानियां रंग लाई, मगर ज़मीन पर लकीर खींचने की शर्त के साथ। आज़ादी का पूरा लुत्फ खुली हवा में ही उठाया जा सकता है। वतन जब अपना हो, तमाम अख़्तियारात जब अपने ज़द में हो तभी हम आज़ाद हैं। नेताओं ने सोचा और नेताओं के बगलगीरों ने सोचा…फिर मुल्क बंटा…नदी बंटी…सेना बंटी…माल-ओ-दौलत का बंटवारा हुआ। फिर लकीर दिल पर खींची जाने लगी। यह लकीर इतनी बड़ी होती चली गई कि सात समंदर पार के देशों में जाना आसान, मगर घर के पड़ोस में नहीं।
सरकारें आती रहीं, सरकारें जातीं, तीन बार सेनाओं ने ज़ोर-आजमाईश की, गरीब घरों से आकर फौज में भर्ती नौजवान एक देश की भाषा में शहीद हुए, दो दूसरी देश की भाषा में मारे गए। फिर तो लकीर और बड़ी होती चली गई। सियासतदानों, आतंकियों, फौजियों ने इसकी ऊंचाई और बढ़ा दी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो बड़े अखबार घराने इन दिनों इस लकीर को लांघने की कोशिश कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं- अमन की आशा। आशा-निराशा दोनों का खेल इसमें चल रहा है। कुछ लोगों को लगता है कि यह आशा व्यर्थ है, यह प्रयास फलीभूत नहीं होगा- पहले बात कश्मीर पर करो, पहले बात फौजियों को घटाने पर करो….गोया अमन की आशा शर्तों और कंडीशंस की बांदी हो गई। पर यहां यह याद रहे कि हम उनके घर नहीं जाते, वो मेरे घऱ नहीं आते…मगर इन एहतियातों से तआल्लुक मर नहीं जाते।
Read Comments